राधे-राधे जी ! श्री ह्रदय आराध्य प्यारे राधा-माधव युगल सरकार की कृपा-कटाक्ष मात्र से कुछ भगवत्प्रसादी शब्दों के माध्यम से आप सबके समक्ष है , गहन चिंतनीय विषय है अतः मनन अवश्य करें ।
"वेदोपनिषदां साराज्जाताभागवती कथा" से भगवदीय वाणी का (एकादश स्कन्ध / इक्कीसवां अध्याय / श्लोक संख्या ३५ से ४३ तक ) एक अंश :-
वेदा ब्रह्मात्मविषयास्त्रिकाण्डविषया इमे | परोक्षवादा ऋषयः परोक्षं मम च प्रियं ||३५॥
शब्दब्रह्म सुदुर्बोधं प्राणेन्द्रियमनोमयं | अनन्तपारं गम्भीरं दुर्विगाह्यं समुद्रवत् ||३६॥
मयोपबृंहितं भूम्ना ब्रह्मणानन्तशक्तिना । भूतेषु घोषरूपेण बिसेषूर्णेव लक्ष्यते ॥३७॥
यथोर्णनाभिर्हृदयादूर्णामुद्वमते मुखात् | आकाशाद् घोषवान् प्राणो मनसा स्पर्शरूपिणा ||३८॥
छन्दोमयोSमृतमयः सहस्रपदवीं प्रभुः | ओङ्काराद् व्यञ्जितस्पर्श स्वरोष्मान्तःस्थभूषितां ||३९॥
विचित्रभाषाविततां छन्दोभिश्चतुरुत्तरैः | अनन्तपारां बृहतीं , सृजत्याक्षिपते स्वयम् ||४०॥
गायत्र्युष्णिगनुष्टुप् च बृहती पङ्क्तिरेव च | त्रिष्टुप्जगत्यतिच्छन्दो ह्यत्यष्ट्यतिजगद् विराट् ||४१॥
किं विधत्ते किमाचष्टे किमनूद्य विकल्पयेत् | इत्यस्या हृदयं लोके नान्यो मद् वेद कश्चन ||४२॥
मां विधत्तेSभिधत्ते मां विकल्प्यापोह्यते त्वहम् | एतावान् सर्ववेदार्थः शब्द आस्थाय मां भिदाम्|
मायामात्रमनूद्यान्ते , प्रतिषिध्य प्रसीदति ||४३॥
अर्थ = (भगवान् श्री कृष्ण का श्री उद्धव जी के प्रति "सारं सुष्ठं मितं मधु" वाणी)
उद्धव जी ! वेदों में ३ काण्ड हैं - कर्म , उपासना और ज्ञान । इन तीनों कांडों के द्वारा प्रतिपादित विषय है ब्रह्म और आत्मा की एकता , सभी मन्त्र और मंत्रदृष्टा ऋषि इस विषय को स्पष्ट नहीं गुप्तभाव से बतलाते हैं और मुझे भी इस बात को गुप्तरूप से कहना ही अभीष्ट है (क्यों कि प्रत्येक जीव इसके अधिकारी नहीं हैं , अंतःकरण शुद्ध होने पर ही यह बात समझ में आती है) ॥ ३५॥ वेदों का नाम है शब्दब्रह्म। वे मेरी मूर्ति हैं , इसीसे उनका रहस्य समझना अत्यंत कठिन है। वह शब्दब्रह्म परा , पश्यन्ती और मध्यमा वाणी के रूप में प्राण , मन और इन्द्रियमय है । समुद्र के समान सीमा-रहित और गहरा है । उसकी थाह लगाना अत्यंत कठिन है। (इसीसे जैमिनी आदि बड़े-बड़े विद्वान् भी उसके तात्पर्य का ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर पाते) ॥३६॥ उद्धव ! मैं अनंत-शक्ति-संपन्न एवं स्वयं अनंत ब्रह्म हूँ । मैंने ही वेदवाणी का विस्तार किया है । जैसे कमलनाभ में पतला-सा सूत होता है वैसे ही वह वेदवाणी प्राणियों के अंतःकरण में अनाहतनाद के रूप में प्रकट होती है ॥३७॥ भगवान् हिरण्यगर्भ स्वयं वेदमूर्ति एवं अमृतमय हैं । उनकी उपाधि है प्राण और स्वयं अनाहत शब्द के द्वारा ही उनकी अभिव्यक्ति हुई है । जैसे मकड़ी अपने ह्रदय से मुखद्वारा जाला उगलती और फिर निगल लेती है , वैसे ही वे स्पर्श आदि वर्णों का संकल्प करने वाले मनरूप निमित्तकारण के द्वारा हृदयाकाश से अनंत अपार अनेकों मार्गों वाली वैखरीरूप वेदवाणी को स्वयं ही प्रकट करते हैं और फिर उसे अपने में लीन कर लेते हैं । वह वाणी हृद्गत सूक्ष्म ओंकार के द्वारा अभिव्यक्त स्पर्श ('क' से लेकर 'म' तक-२५) , स्वर ('अ' से 'औ' तक-९) , ऊष्म (श , ष , स , ह) और अन्तःस्थ (य , र , ल , व) - इन वर्णों से विभूषित है उसमें ऐसे छंद हैं , जिनमें उत्तरोत्तर चार-चार वर्ण बढ़ते जाते हैं और उनके द्वारा वह विचित्र भाषा के रूप में वह विस्तृत हुई है॥३८-४०॥ (चार-चार अधिक वर्णोंवाले छन्दों में से कुछ ये हैं - ) गायत्री , उष्णिक् , अनुष्टुप् , बृहती , पङ्क्ति , त्रिष्टुप् , जगती , अतिच्छन्द , अत्यष्टि , अतिजगती और विराट् ॥४१॥ वह वेदवाणी कर्मकाण्ड में क्या विधान करती है , उपासनाकाण्ड में किन देवताओं का विधान करती है और ज्ञानकाण्ड में किन प्रतीतियों का अनुवाद करके उनमें अनेकों प्रकार के विकल्प करती है - इन बातों को इस सम्बन्ध में श्रुति के रहस्य को मेरे अतिरिक्त और कोई नहीं जानता ॥४२॥ मैं तुम्हें स्पष्ट बतला देता हूँ , सभी श्रुतियां कर्मकाण्ड में मेरा ही विधान करती हैं , उपासनाकाण्ड में उपास्य देवताओं के रूप में वे मेरा ही वर्णन करती हैं और ज्ञानकाण्ड में आकाशादि रूप से मुझमें ही अन्य वस्तुओं का आरोप करके उनका निषेध कर देती हैं । सम्पूर्ण श्रुतियों का बस , इतना ही तात्पर्य है कि वे मेरा आश्रय लेकर मुझमें भेद का आरोप करती हैं , मायामात्र कहकर उसका अनुवाद करती हैं और अंत में सबका निषेध करके मुझमें ही शांत हो जाती हैं और केवल अधिष्ठानरूप से मैं ही शेष रह जाता हूँ ॥४३॥
जय जय श्री राधे !
"वेदोपनिषदां साराज्जाताभागवती कथा" से भगवदीय वाणी का (एकादश स्कन्ध / इक्कीसवां अध्याय / श्लोक संख्या ३५ से ४३ तक ) एक अंश :-
वेदा ब्रह्मात्मविषयास्त्रिकाण्डविषया इमे | परोक्षवादा ऋषयः परोक्षं मम च प्रियं ||३५॥
शब्दब्रह्म सुदुर्बोधं प्राणेन्द्रियमनोमयं | अनन्तपारं गम्भीरं दुर्विगाह्यं समुद्रवत् ||३६॥
मयोपबृंहितं भूम्ना ब्रह्मणानन्तशक्तिना । भूतेषु घोषरूपेण बिसेषूर्णेव लक्ष्यते ॥३७॥
यथोर्णनाभिर्हृदयादूर्णामुद्वमते मुखात् | आकाशाद् घोषवान् प्राणो मनसा स्पर्शरूपिणा ||३८॥
छन्दोमयोSमृतमयः सहस्रपदवीं प्रभुः | ओङ्काराद् व्यञ्जितस्पर्श स्वरोष्मान्तःस्थभूषितां ||३९॥
विचित्रभाषाविततां छन्दोभिश्चतुरुत्तरैः | अनन्तपारां बृहतीं , सृजत्याक्षिपते स्वयम् ||४०॥
गायत्र्युष्णिगनुष्टुप् च बृहती पङ्क्तिरेव च | त्रिष्टुप्जगत्यतिच्छन्दो ह्यत्यष्ट्यतिजगद् विराट् ||४१॥
किं विधत्ते किमाचष्टे किमनूद्य विकल्पयेत् | इत्यस्या हृदयं लोके नान्यो मद् वेद कश्चन ||४२॥
मां विधत्तेSभिधत्ते मां विकल्प्यापोह्यते त्वहम् | एतावान् सर्ववेदार्थः शब्द आस्थाय मां भिदाम्|
मायामात्रमनूद्यान्ते , प्रतिषिध्य प्रसीदति ||४३॥
अर्थ = (भगवान् श्री कृष्ण का श्री उद्धव जी के प्रति "सारं सुष्ठं मितं मधु" वाणी)
उद्धव जी ! वेदों में ३ काण्ड हैं - कर्म , उपासना और ज्ञान । इन तीनों कांडों के द्वारा प्रतिपादित विषय है ब्रह्म और आत्मा की एकता , सभी मन्त्र और मंत्रदृष्टा ऋषि इस विषय को स्पष्ट नहीं गुप्तभाव से बतलाते हैं और मुझे भी इस बात को गुप्तरूप से कहना ही अभीष्ट है (क्यों कि प्रत्येक जीव इसके अधिकारी नहीं हैं , अंतःकरण शुद्ध होने पर ही यह बात समझ में आती है) ॥ ३५॥ वेदों का नाम है शब्दब्रह्म। वे मेरी मूर्ति हैं , इसीसे उनका रहस्य समझना अत्यंत कठिन है। वह शब्दब्रह्म परा , पश्यन्ती और मध्यमा वाणी के रूप में प्राण , मन और इन्द्रियमय है । समुद्र के समान सीमा-रहित और गहरा है । उसकी थाह लगाना अत्यंत कठिन है। (इसीसे जैमिनी आदि बड़े-बड़े विद्वान् भी उसके तात्पर्य का ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर पाते) ॥३६॥ उद्धव ! मैं अनंत-शक्ति-संपन्न एवं स्वयं अनंत ब्रह्म हूँ । मैंने ही वेदवाणी का विस्तार किया है । जैसे कमलनाभ में पतला-सा सूत होता है वैसे ही वह वेदवाणी प्राणियों के अंतःकरण में अनाहतनाद के रूप में प्रकट होती है ॥३७॥ भगवान् हिरण्यगर्भ स्वयं वेदमूर्ति एवं अमृतमय हैं । उनकी उपाधि है प्राण और स्वयं अनाहत शब्द के द्वारा ही उनकी अभिव्यक्ति हुई है । जैसे मकड़ी अपने ह्रदय से मुखद्वारा जाला उगलती और फिर निगल लेती है , वैसे ही वे स्पर्श आदि वर्णों का संकल्प करने वाले मनरूप निमित्तकारण के द्वारा हृदयाकाश से अनंत अपार अनेकों मार्गों वाली वैखरीरूप वेदवाणी को स्वयं ही प्रकट करते हैं और फिर उसे अपने में लीन कर लेते हैं । वह वाणी हृद्गत सूक्ष्म ओंकार के द्वारा अभिव्यक्त स्पर्श ('क' से लेकर 'म' तक-२५) , स्वर ('अ' से 'औ' तक-९) , ऊष्म (श , ष , स , ह) और अन्तःस्थ (य , र , ल , व) - इन वर्णों से विभूषित है उसमें ऐसे छंद हैं , जिनमें उत्तरोत्तर चार-चार वर्ण बढ़ते जाते हैं और उनके द्वारा वह विचित्र भाषा के रूप में वह विस्तृत हुई है॥३८-४०॥ (चार-चार अधिक वर्णोंवाले छन्दों में से कुछ ये हैं - ) गायत्री , उष्णिक् , अनुष्टुप् , बृहती , पङ्क्ति , त्रिष्टुप् , जगती , अतिच्छन्द , अत्यष्टि , अतिजगती और विराट् ॥४१॥ वह वेदवाणी कर्मकाण्ड में क्या विधान करती है , उपासनाकाण्ड में किन देवताओं का विधान करती है और ज्ञानकाण्ड में किन प्रतीतियों का अनुवाद करके उनमें अनेकों प्रकार के विकल्प करती है - इन बातों को इस सम्बन्ध में श्रुति के रहस्य को मेरे अतिरिक्त और कोई नहीं जानता ॥४२॥ मैं तुम्हें स्पष्ट बतला देता हूँ , सभी श्रुतियां कर्मकाण्ड में मेरा ही विधान करती हैं , उपासनाकाण्ड में उपास्य देवताओं के रूप में वे मेरा ही वर्णन करती हैं और ज्ञानकाण्ड में आकाशादि रूप से मुझमें ही अन्य वस्तुओं का आरोप करके उनका निषेध कर देती हैं । सम्पूर्ण श्रुतियों का बस , इतना ही तात्पर्य है कि वे मेरा आश्रय लेकर मुझमें भेद का आरोप करती हैं , मायामात्र कहकर उसका अनुवाद करती हैं और अंत में सबका निषेध करके मुझमें ही शांत हो जाती हैं और केवल अधिष्ठानरूप से मैं ही शेष रह जाता हूँ ॥४३॥
जय जय श्री राधे !
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